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स्वर कोकिला लता मंगेशकर भारत की वो गायिका है जिसका दुनिया में संगीत का हर कोई व्यक्ति सम्मान करता है ने आजकल के बॉलीवुड रीमिक्स संगीत को लेकर कुछ लिखा है  लता मंगेशकर ने लिखा है  गाने की मूल धुन को बिगाड़ना, शब्दों में मनचाहा परिवर्तन करना या फिर नए और सस्ते शब्द जोड़ना इस तरह की बेतुकी हरकतें देख-सुन सचमें पीड़ा होती है। 

स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने 01 जून को ट्वीट किया ….

फिर उन्होंने लिखा ….

नमस्कार .जावेद अख़्तर साहब से मेरी टेलिफ़ोन पे बात हुई उसके बाद मुझे महसूस हुआ कि मुझे उसपर कुछ लिखना चाहिए,तो वो बात आप सबके सबके साथ साँझा कर रही हूँ.हिंदी चलच्चित्र संगीत का एक अनुपम दौर था। इसे golden era–स्वर्णिम युग–कहा जाता है। इस दौर के सिनेमा गीत भारतीयों के हृदय में वर्षों से रचे-बसे हैं। आज भी यह गीत करोंड़ों रसिक पसंद करते हैं एवं आगे भी पसंद करते रहेंगे।

कुछ समय से मैं देख रही हूं कि स्वर्णिम युग से जुड़े गीतों को नए ढंग से–re-mix के माध्यम से–पुन: पेश किया जा रहा है। कहते हैं कि यह गीत युवा श्रोताओं में लोकप्रिय हो रहें हैं।

सच पूछिए तो इस में आपत्ती की कोई बात नहीं है। गीत का मूल स्वरूप कायम रख उसे नये परिवेश में पेश करना अच्छी बात है। एक कलाकार के नाते मैं भी ये मानती हूँ की कई गीत कई धुनें ऐसी होती है की हर कलाकार को लगता है की काश इसे गाने का मौक़ा हमें मिलता,ऐसा लगना भी स्वाभाविक है,परंतु, गीत को तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत करना यह सरासर गलत बात है। और सुना है की ऐसा ही आज हो रहा है और मूल रचयीता के बदले और किसी का नाम दिया जाता है जो अत्यंत अयोग्य है.

गाने की मूल धुन को बिगाड़ना, शब्दों में मनचाहा परिवर्तन करना या फिर नए और सस्ते शब्द जोड़ना इस तरह की बेतुकी हरकतें देख-सुन सचमें पीड़ा होती है। 

गीत को उसके मूल स्वरूप में पेश करना अच्छी बात है। ऐसा करने से मूल गीत की सुंदरता और उसका अर्थ कायम रहेगा। नयी पीढ़ि को ऐसे गीत जरूर पसंद आएंगे।

स्वर्णिम युग के गीतों को बनाने में अनेक कलाकारों की–गायक-गायिका, गीतकार, संगीतकार ,संगीत संयोजक एवं कुशल वादकोंकी, तंत्रविशारदों की–मेहनत लगी है। उस दौर में मधुर गीतों का एक जुलूस निकल पड़ा। इस बात को हमें भूलना नहीं चाहिए कि अमीरबाई कर्नाटकी, जोहराबाई अंबालेवाली, तलत महमूदसाहाब, शमशाद बेगम, मोहम्मद रफ़ी साहाब, मुकेशभाई,गीता दत्त, किशोर-दा, मन्ना दा,आशा भोसले, उषा मंगेशकर,सुमन कल्याणपुर येशुदास, एस. पी. बालसुब्रमण्यम जैसे असंख्य गायक-गायिकाओं ने अपने गीतों से समूचे देश को एकता के धागे में पिरोने का काम किया।

दादासाहाब फालकेजी ने भारतीय सिनेमा की नींव रखी। मेहनत और प्रतिभा के बलपर उन्हों ने इस देश के सामने स्वस्थ मनोरंजन का एक बढ़िया ज़रिया प्रस्तुत किया। व्ही. शांतारामजी ने प्रभात फिल्म कंपनी के माध्यम से सामाजिक सरोकारों का रुपहले पर्दे पर सशक्त चित्रण किया। वहां कलकत्ते में (अभी का कोलकाता) देवकी बोस, नितिन बोस, प्रमथेश चंद्र बरुआ और कुंदनलालजी सहगल ने सिनेमा को एक निहायत उंचा दर्जा दिया।

महबूब खान, बिमल राॅय, के. आसिफ, चेतन आनंद, विजय आनंद, बी.आर.चोप्रा-यश चोप्रा, गुरू दत्त, राज कपूर, शक्ति सामंता, राज खोसला, नासीर हुसैन, हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार जैसे निर्माता-निर्देशकों ने भारतीय वास्तव का यथार्थ और मनलुभावन रूप दीखाया। उस दौर के हर निर्देशक की फिल्म में कहानी एवं गीतों का एक सुंदर तानाबाना देखने मिलता है। यह गीत भारत के जनजीवन से जुड़ गए हैं।

महाराष्ट्र में निर्देशक भालजी पेंढारकरजी ने श्री शिवाजी महाराजजी के जीवन एवं कार्य का निष्ठापूर्वक और सुंदर चित्रांकन कर मराठी लोकसंस्कृति में सिनेमा को प्रस्थापित किया। उनके फिल्मों को महाराष्ट्र की मिट्टी की खुशबू आती है।

एस. एस. वासन, एल. व्ही. प्रसाद, एम. व्ही. रमण, ए. भीम सिंह जैसे स्वनामधन्य फिल्मकारों ने दक्षिण भारत में हिंदी फिल्मों का निर्माण कर सिनेमा द्वारा देश में एकता कायम की जाती है इस सत्य को रेखांकित किया।

मास्टर गुलाम हैदर, खेमचंद प्रकाश, अनिल विश्वास, आर. सी. बोराल, पंकज मलिक, के. सी. डे, नौशाद, सी.रामचंद्र, सज्जादजी, शंकर-जयकिशन, एस. डी. बर्मन, मदनमोहन, रोशनलाल, हेमंतकुमार, सुधीर फडके, पं. हृदयनाथ मंगेशकर, वसंत देसाई, जयदेव, खय्याम, सलिल चौधरी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, आर. डी. बर्मन, चित्रगुप्त, कल्याणजी-आनंदजी, जतीन-ललित जैसे अनगिनत प्रतिभाशाली संगीतकारोंने सुर, ताल और लय का अनुपम उत्सव रचा।

हिंदी सिनेमा के गीतों को अमर बनाने में कवियों और शायरों का अमूल्य योगदान रहा है। साहिर लुधियानवी, मजरूह सुलतानपुरी, शैलेंद्र, राजेंद्र कृष्ण, पं. प्रदीप, पं. नरेंद्रजी शर्मा, पं. इंद्र, भरत व्यास, कैफ़ी आझमी, हसरत जयपुरी, इंदिवर, राजा मेहंदी अली खान, गुलजार, नीरज, आनंद बक्षी, जावेद अख्तर जैसे अनगिनत कवियोंने सिनेमा-गीतों के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं और भारत की बुनियादी मूल्यों का भरपूर संवर्धन किया। कई हिंदी सिनेमा-गीतों की पंक्तियों को हमारे लोक जीवन में मुहावरों का दर्जा मिला है। या बहुत बड़ी बात है।

एक और बात कहती हूं जो आप को दिलचस्प लगे। उस जमाने में तकनीक का पक्ष मजबूत नहीं था। मोम की रिकाॅर्ड पर गाना ध्वनिमुद्रित किया जाता था। जरा-सी भूल हो जाए तो वह रिकाॅर्ड तोड़कर दूसरी बार गाना ध्वनिमुद्रित किया जाता था। पर हमारे गुणी वादक भाई और ,कौशिक जी मिनू कात्रक, भंसाली जी जैसे रिकार्डिस्ट पूरी कुशलता के साथ अपना काम करते थे। सुविधाओं का अभाव जरूर था, परंतु प्रतिभा की कोई कमी नहीं थी।

काम में लगन थी, प्रतिबध्दता की भावना थी। एक-एक गाने को खूब तराशा जाता था। कई दिन रिहर्सलें होतीं थीं। गाना सुंदर और अर्थपूर्ण हो इसलिए हर कोई हृदयपूर्वक कोशिश करता था। हर किसी पर सृजन का आशीर्वाद था। आज पीछे मुडकर देखती हूं और सोचती हूं तो लगता है कि वह दिन अभिमंत्रित थे, वह समय जादुई था।

आज भी हिंदी सिनेमा में कितने ही कवी-गीतकार, संगीतकार, गायक-गायिकाएं, रेकाॅर्डिस्ट्स, म्युझिशिअन्स, तंत्रविशारद पूरी मेहनत और लगन से काम कर रहें हैं और उनके काम को लोग सराह रहें हैं।

अनगिनत गुणीजनों की प्रतिभा, तपस्या एवं मेहनत के फलस्वरूप हिंदी सिनेमा के गीत बने और बन रहे हैं। लोकप्रियता के शैलशिखर पर विराजमान हुए हैं, हो रहें हैं। यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। मेरी प्रार्थना है इसके साथ खिलवाड़ न करें।संगीत यह समाज एवं संस्कृति का प्रथम उद्गार है। उस के साथ विद्रोह न करें।ये समस्त संगीतकार ,गीतकार और गायकोंने ये तय करना चाहिए की केवल लोकप्रियता पाने के लिए वो इस संगीत के खजानें का दुरुपयोग ना करें।

हिंदी सिनेमा-गीतों की पवित्रता कायम रखने का और यह मसला योग्य तरह से हल करने का दायित्व रेकार्डिंग कंपनीयों का है ऐसा मैं मानती हूं लेकिन दुःख इस बात का है की कंपनीयां ये भूल गयी हैं।यह कंपनीयां अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करें ,संगीत को केवल व्यावसायिक तौर पे देखने के बजाय देश की सांस्कृतिक धरोहर समझके क़दम उठाए ऐसा मेरा उनसे नम्र निवेदन है।  धन्यवाद। -लता मंगेशकर

साभार : ट्विट लोंगेर डॉट कॉम

फोटो साभार : गूगल

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