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जयपुर,। राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए जन चेतना का अभाव ही इसकी मान्यता में देरी का मुख्य कारण रहा है। प्रजातन्त्र में जनशक्ति सर्वोपरि है और जनषक्ति और इसका प्रदर्षन ही अपने अधिकारों को प्राप्त करवा सकता है। यह विचार ‘जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल‘ द्वारा आयोजित ‘राजस्थानी भाषा की मान्यता‘ विषय पर संगोष्ठी में के.सी. मालू ने व्यक्त किया। के.सी. मालू ने बताया कि राजस्थानी लोेगों के दो गुण धैर्य एवं कुर्बानी हमारी मान्यता के लिए घातक बन गए।
उन्होंने कहा कि सरकार भाषा के आन्दोलन को केवल साहित्यकारों का आन्दोलन समझती रही लेकिन अब केन्द्रीय नेतृत्व के समझ में आ गया है कि राजस्थानी भाषा की मान्यता का सवाल जन आन्दोलन बन गया है तथा यह प्रष्न युवाओं के रोजगार तथा प्रषासन में राजस्थान वासियों की भागीदारी के साथ भी जुड़कर अधिक उग्र बन गया है। आज का युवा वर्ग इस बात के लिए आक्रोषित है कि मान्यता के अभाव में राजस्थानी भाषा रोजगार दिलाने में सक्षम न होने से स्थानीय प्रषासन में भागीदारी नहीं निभा सकी है। राजस्थानी भाषा की मान्यता पर विस्तार से बताते हुए उन्होंने कहा कि गृहमंत्री एवं प्रधानमंत्री ने हमारी मांग को स्वीकार कर लिया है कुछ प्रषासनिक अड़चने हैं। जिन्हें दूर कर उम्मीद है कि आगामी सत्र में राजस्थानी भाषा को मान्यता मिल जायेगी।
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इससे पूर्व पद्मश्री सी.पी. देवल ने मनुष्य के लिए भाषा की अहमियत, राजस्थानी भाषा की मान्यता न होने में पिछडे़पन का कारण बताते हुए युवाओं को प्रेरित किया कि वे अपनी वाजिब मांग के लिए आगे आये। राजस्थान विष्वविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापिका गीता सामोर ने लोक जीवन के साथ राजस्थानी का जुडाव, भाषा के प्रोत्साहन में लोक की महत्ता पर प्रकाष डाला। आरम्भ में वरिष्ठ साहित्यकार नन्द भारद्वाज ने भाषा की वर्तमान स्थिति व हमारी परम्पराओं के साथ राजस्थानी का जुड़ाव एवं मान्यता की धीमी गति पर प्रकाष डालकर विषय को आगे बढ़ाया।

आष्चर्य कि बात यह है कि आज राजस्थानी भाषा के सत्र में दरबार हाल युवाओं से खचा-खच भरा था और लोग फर्ष पर बैठकर एवं बाहर खडे होकर भी इस सत्र को सुन रहे थे इससे यह पता चलता है कि राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए लोगों में जन चेतना जागृत हो गई है और अब यह साहित्यकारों का आन्दोलन न होकर जन आन्दोलन बन गया है सरकार को बाध्य होकर राजस्थानी भाषा को मान्यता देना होगा।

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